साइंटिफिक-एनालिसिस
भारतीय मीडीया को संवैधानिक चेहरा मिलने का लोकतांत्रिक तरिका…
जुबानी तौर पर सिर्फ बोले जाना वाला लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया न तो धरातल पर मूर्तरूप से हैं और न इसकी कोई प्रक्रिया और व्यवस्था हैं जो लोकतंत्र को मजबूत करे व उसे समय के बढ़ते चक्र के साथ विघटन से बचाकर स्थाईत्व प्रदान करें | आपके साइंटिफिक-एनालिसिस द्वारा राष्ट्रपति को वर्ष 2011 में ही सांकेतिक रूप से उनके संवैधानिक पद की गरिमा को व्याखित करने के प्रारूप में यह सच सामने आ गया और दुनिया में पहली बार किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के ग्राफिक्स रूप का उद्भव हो गया | इसके लिए प्रमाणित दस्तावेज हमारे आविष्कार को देश व दुनियाभर से मिले समर्थन के कागजों के रूप में महामहिम राष्ट्रपति तक पहुंचे | यह बात अब दिन दुगुनी और रात चौगुनी रफ्तार से हर मीडियाकर्मी और देश के नागरिकों तक पहुंच रही हैं |
अब बात आती हैं कि मीडीया को यह संवैधानिक चेहरा व जवाबदेही वाला कानूनी अधिकार मिलेगा कैसे? जो आंदोलनों, तोड़फोड़, सविनय अवज्ञा विरोध, भारत बंद, विरोध-प्रदर्शनों, अहिंसक पैदल मार्च आदि से जनता को परेशान किये बिना, किसी व्यक्ति आधारित सर्वेसर्वा राजनैतिक दल व किसी बड़े राजनैतिक दल के बड़े राजनेता के चरणों में लेटे बिना और पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े गिने-चुने व्यक्तियों को नेता बना या गरीब, कमजोर, निचले स्तर के पत्रकारों को बलि के बकरे के रूप में बलिदान कराये बिना वर्तमान में चल रही संवैधानिक प्रक्रिया के तहत शांति, सौहाद्र, एकता, भाईचारे और बुद्धिमता से पूरा हो जाये |
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भारतीय लोकतंत्र के लिए मीडीया का संवैधानिक चेहरा क्यों जरूरी हैं उसे समझने के लिए यह वीडियो ध्यान से देखे |
मीडीया का संवैधानिक चेहरा हर पत्रकार के लिए जरूरी हैं क्योंकि उसके पेशे के साथ सामाजिक रूप से आन-बान-शान और जीवन की सुरक्षा एवं स्थाईत्व से जुडा़ हैं | इसमें राष्ट्र निर्माण करने की भूमिका, आपराधिक एवं बाहुबली लोगों की सच्चाई उजागर करने पर उनसे सुरक्षा, कार्य के दौैरान कोई दुर्घटना व अप्रिय घटना हो जाने, जीवनपर्यंत कार्य के बाद पेंशन, असमय चले जाने पर परिवार को संरक्षण, सच्चाई, निष्ठा व ईमानदारी वाले कार्य को पहचान, सम्मान और पत्रकारिता के कार्यक्षेत्र में शीर्ष पद पर जाने तक की प्रक्रिया, सच सामने लाने पर फर्जी / गलत व परेशान और दबाव बनाने के लिए करी जाने वाली एफ.आई.आर. और अदालती मुकदमें, आर्थिक रूप से सहयोग/आश्ररा ताकि धनबल के आगे घुटने न टेकने पड़े, आजकल बिक चुके बिना अक्कल वालों के झूंड द्वारा सोशियल मीडिया में झूठी जानकारी, छेड़छाड़ व गढी हुई तस्वीरें व वायरल के माध्यम से मानसिक उत्पीड़न से बचाव इत्यादि-इत्यादि मामले व दृष्टिकोण हैं |
इतना सबकुछ होने के बाद भी पत्रकारों से ज्यादा लोकतंत्र को बिखराव, बर्बाद होने व स्थाईत्व के लिए मीडिया के संवैधानिक चेहरे की जरूरत ज्यादा हैं व व्यवस्था के विकेन्द्रीयकरण एवं आगे की दिशा में अग्रसर बनाये रखने के लिए जवाबदेही वाले कानूनी अधिकार को तुरन्त प्रभाव से देना अति आवश्यक है | हेट-स्पीच, अश्लीलता, फेंक-न्यूज, वायरल संदेश, झूठ के गुब्बार बनाकर ठगी, लूट-खसोट, भीडतंत्र बनाकर व फर्जी जनसमूह से माइंडवाश, व्यवसाहिकरण के जकड़न और बाजारवाद के फंदे, धनबल से गुलामीता, कानूनी प्रक्रिया के नाम पर टार्चर और वसूली, मान-मर्यादा व ईज्जत के नाम पर शारीरिक, लैंगिक शोषण और सामाजिक जीवन की बर्बादी जैसे कई हथकंडे बड़ी तेजी से पत्रकारिता व व्यवस्था को निगल रहे हैं |
पत्रकार लोग संगठित होकर अपना संवैधानिक चेहरा ले लेंगे यह मुश्किल लगता हैं क्योंकि गोदी मीडिया का भस्मासुर राजनैतिक रूप से इनमें घुस चुका हैं जो लालच, घृणा, चाटुकारिता, स्वार्थ, अहंकार, घमण्ड, श्रेत्र-विशेष, धार्मिक संकीर्णता व अब जातिवाद के जहर से लबरेज हैं | हमारी आविष्कार की फाईल प्रधानमंत्री कार्यालय से राष्ट्रपति के पास अंतिम निर्णय के लिए पहुंच चुकी हैं व कई मंत्रालयों की एक संकलित रिपोर्ट बन चुकी हैं इसलिए कार्यपालिका अब कुछ नहीं कर सकती | विधायिका यानि संसद में कानून बनने के बाद अंतिम स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास जाता हैं | यह मामला पहले ही राष्ट्रपति के पास पहुंच गया हैं इसलिए संसद कुछ नहीं कर सकती | यदि राष्ट्रपति इसे संसद के पास भेज मीडिया के संवैधानिक चेहरे का गठन व जवाबदेही कानूनी आधिकार देने का कानून बनाने को कहें तो अलग बात हैं | यदि सभी सांसदगण अलग प्रक्रिया प्रारम्भ सै शुरु कर दो तिहाई बहुमत से पास कर राष्ट्रपति को भेजे तो बात अलग हैं।
उच्चतम स्तर यानि न्यायपालिका सभी हेट-स्पीच के मामले में प्रचार प्रसार के माध्यम मीडिया व उसकी जानकारी में आ चुके संवैधानिक चेहरा न होने की सच्चाई को देखकर इस पर अलग से संविधान पीठ में सुनवाई कर राष्ट्रपति को मंजूरी के लिए भेज दे | यदि संवैधानिक पीठ में सभी 15 न्यायाधीश मौजूद हो तो इसे राष्ट्रपति भी नहीं बदल सकते व रोक सकते हैं | राष्ट्रपति हमारी विचाराधीन आविष्कार की फाईल पर अंतिम निर्णय के लिए अधिकृत होने के कारण स्वयं फैसला ले ले | यदि उन्हें शंशय हो या गलत परम्परा शुरु हो जाने का डर हो तो संविधान के भाग 5 में अनुच्छेद 143 की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए उसे मुख्य न्यायाधीश को भेज सं वह पीठ के माध्यम से सलाह मांगकर फैसला सुना दे |
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक