साइंटिफिक-एनालिसिस
राष्ट्रपति व मुख्य न्यायाधीश के मध्य संवैधानिक मर्यादा की दरार पड़ी
26 नवम्बर को भारत ने संविधान के 75 वर्ष पूरे होने पर संविधान दिवस बनाया गया | इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश के मध्य संवैधानिक मर्यादा की दरार स्पष्ट दिखाई दी, जिससे देशवासियों के ललाट पर चिंताओं की लकीरें खींच दी | इससे बिखरते व खत्म होते लोकतन्त्र में चारों स्तम्भों की अवधारणा वाली आधार नीव की बुनियाद भी धाराशाही होती हुई नजर आई |
पिछले कुछ वर्षों से उच्चतम न्यायालय के अन्दर बनाये जाने वाले संविधान-दिवस में राष्ट्रपति महोदय उपस्थिति दर्ज करवा के उसे राष्ट्र व भारत-सरकार का आधिकारीक कार्यक्रम होने की मोहर लगाती थी | इस बार सुप्रीम कोर्ट के इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति नहीं गई | भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें निमंत्रण नहीं दिया या राष्ट्रपति ने उस निमंत्रण को ठुकरा दिया | यह अपने आप में यक्ष प्रश्न हैं क्योंकि जिस संविधान के नाम पर उत्सव बनाकर बधाईयां दी जा रही थी उसी संविधान की शपथ व पद की गरिमा राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश को दिलाते हैं और मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति को दिलाते हैं |
महामहिम राष्ट्रपति संविधान दिवस के कार्यक्रम में पुरानी संसद भवन में गई तो उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को निमंत्रण देकर क्यों नहीं बुलाया व मंच पर उचित, नैतिक एवं संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप पास में कुर्सी पर क्यों नहीं बैठाया | उच्चतम न्यायालय, भारत सरकार का हिस्सा नहीं हैं, यह सिर्फ लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए उच्चतम न्यायालय के गेट पर बड़े-बड़े अक्षरों में उसके नाम के निचे भारत-सरकार लिखा हैं। न्यायपालिका तो लोकतन्त्र का प्रमुख स्तम्भ हैं | भारतीय मीडिया के लोग व सभी संवैधानिक कुर्सी पर बैठे लोग उसे चौथा स्तम्भ कहते हैं लेकिन इन्हें निचे खड़े होकर फोटो खींचने व जी-हजूरी करने से फुर्सत नहीं हैं | राष्ट्रीय मंच पर मीडिया के प्रतिनिधि को बैठाकर उसके माध्यम से संविधान की शपथ, मर्यादा व उसके अनुरूप काम करने की प्रतिज्ञा देश व दुनिया के सामने लेते हुए इन्हें शर्म आती हैं, शायद पत्रकार लोग पत्रकारिता करते समय अपने जीवन का बलिदान और कर्म राष्ट्र के लिए नहीं अपितु पैंसों व प्राइवेट कम्पनीयों के लिए करते है |
राष्ट्रपति ने राष्ट्र के संविधान-दिवस कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश को बुलाया हो लेकिन मुख्य न्यायाधीश वहां नहीं गये व उच्चतम न्यायालय मे अपना अलग ही कार्यक्रम बनाया | यह अपने आप में असंवैधानिक और शपथ की अवेहलना सहित सबसे बड़े राष्ट्रदोह में गिना जाता है । इससे आम नागरिकों के दिल व दिमाग में यह बात बैठ गई कि राष्ट्रपति के आदेश को मुख्य न्यायाधीश न मानने की तानाशाही वाली शक्ति रखते हैं | इसके विपरित जो मुख्य न्यायाधीश और संविधान संरक्षक का दर्जा प्राप्त पूर्ण संविधान पीठ के न्यायाधीश जिनके फैंसलों को राष्ट्रपति भी नहीं बदल सकते वो राष्ट्रपति व उनसे शपथ लेकर संवैधानिक पदों पर बैठने वाले लोगों को नहीं बुला सकते वो संविधान की क्या रक्षा करेंगे व जनहित के मामलों में कैसे इनके खिलाफ फैसला देना तो दूर आदेश में लिखित टिप्पणी करेंगे |
उच्चतम न्यायालय के अन्दर शाम को बनाये गये संविधान दिवस में प्रधानमंत्री ने पहली बार उपस्थिति दर्ज करवाई | नैतिकता व मर्यादा के अनुरूप प्रधानमंत्री को शर्म व लज्जा नहीं आई कि वो तो संविधान दिवस के कार्यक्रम में उनको नहीं बुलाते व स्वयं उनके कार्यक्रम में चले जाते हैं।
इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने भारतीय न्यायपालिका की वार्षिक रिपोर्ट 2023-24 जारी करी | इससे पहले राष्ट्रपति की उपस्थिति में यह रिपोर्ट जारी हुई व शायद उन्हें सौंपी भी गई | जब उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को सीधी रिपोर्ट नहीं दे सकता तो संविधान पीठो और उसके फैसलों का संवैधनिक आधार तो खत्म हो गया | राष्ट्रपति भी संविधान के अनुसार मुख्य न्यायाधीश से सलाह किस आधार पर मांगेगे | जब फाईल कार्यपालिका के प्रमुख प्रधानमंत्री के माध्यम से राष्ट्रपति के पास जायेगी तो संविधान संशोधन के मामलों व कार्यपालिका के खिलाफ चल रहे अदालती मामलों में न्याय की सम्भावना विवादों से बच भी पायेगी | यह प्राकृतिक न्याय की अवधारणा को ही खत्म करना नहीं होगा |
नोट – इस पूरे साइंटिफिक-एनालिसिस में संवैधानिक पदों की बात करी गई हैं, इन पदों पर कौन व्यक्ति कार्य या नौकरी कर रहा है उससे कोई लेना-देना नहीं हैं |
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक